मंगलवार, 28 फ़रवरी 2012

दर्द में भी इक लज्ज़त है .

                               कई बार लगता है दुनिया सिर्फ मतलबपरस्तों के लिए ही है ,अपना उल्लू सीधा करो और चलते बनो .हर कहीं ... हर कोई आपको काटने की फिराक में है कि किस तरह आपसे  ज्यादा से ज्यादा  फायदा उठाया जा सके.... .जब ज़रूरत हुई अपना मतलब निकल लिया,जब ज़रूरत हुई आपसे आँखे फेर ली .जिन जिन लोगो का मैंने बुरे वक़्त में अच्छा किया वही आज बुरे वक़्त में अपनी आँखे दिखने में भी नहीं हिचकिचा रहे है .कहते है कि रात  सबसे   ज्यादा काली तब होती है ,जब सुबह कि पहली किरण पड़ने ही वाली हो, मगर यहाँ तो पूरी रात ही गहरी काली है .हां इस गहरी काली अमावास की रात में कुछ ऐसे सितारे भी झिलमिला रहे है जिनके उजाले में  मुझे कुछ दिलासा दे रहे है.और मेरा सच्चाई पर भरोसा और बढ़ा देते है .यक़ीनन इन मतलब परस्तो की दुनिया में मैं अपना इमां नहीं बेचूंगी .लडूंगी  अपने मुकद्दर से,और उसे मजबूर करुँगी की मेरी तकदीर मेरे हक में लिखे. मिटा डाले वो सारे काले हर्फ़ मुफलिसी के , मिटा दे वो दाग सारे मेरी तौहीन के और ले आये बेइंतहा खुशियाँ  जहाँ की .कोई साथ नहीं तो क्या .. मेरे हौसले तो है ..और हैं भी बेहद बुलंद ..इन्ही के सहारे मैं खुद को खड़ा करुँगी और लिखूंगी एक नई इबारत . सब लोग आज मेरी पीठ में खंज़र भोंकने  को तैयार है तो भी कई ग़म नहीं , कोई रहनुमा  नहीं है तो भी कई ग़म नहीं ... इसी हौसले और इमां के भरोसे मैं ज़िन्दगी की बुलंदियों को हासिल करुँगी.क्योकि  मैं ये बात जानती हूँ कि मैं ये दौर भी गुज़र जाएगा .. बस रह जाएँगे ,ज़िन्दगी से हासिल किये कुछ सबक.......
मगर हाँ.................. इस दर्द में भी इक लज्ज़त है ............. 

सोमवार, 27 फ़रवरी 2012

बुरा लगा जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल ...

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल यानि जयपुर साहित्य समारोह के रंग में रंगी गुलाबी नगरी के उत्साह की बानगी देखते ही बनती है। मगर यह एक प्रबुद्ध वर्ग विशेष तक ही सीमित है। राजस्थान की मिटटी में छिपे साहित्य को किसी ने सामने लाने का प्रयास तक नहीं किया। विजयदान देथा या लक्ष्मी कुमारी चूडावत जैसे महान साहित्यकारों तक को अनदेखा किया गया और विदेशो में हींग लगाने को भी ना पूछे जानेवाले लेखको को महिमा मंडित किया जा रहा है. अपनी विरासत भूल कर विदेशो की और ताकने से सदा हम हीन के हीन ही बने रहेंगे . कोई तो एक समारोह हमारे राजस्थान के हीरों के नाम हो , जिसके उनकी प्रतिभा  खुल कर निखर कर आम जन के सामने आये....
२३.१.१२





दुःख अच्छे हैं

जीवन ईश्वर की अनमोल देन है, इसमें कोई संदेह नहीं . परन्तु क्या जीवन मैं आने वाले दुःख भी उतने ही अनमोल हैं जितने की सुख ?? मेरी बात कुछ अटपटी सी लग सकती है . पर ये बात सोचने वाली है की क्या बिना काँटों के गुलाब का महत्व भी उतना ही होता जितना काँटों वाले गुलाब का. काँटों वाला गुलाब सहज ही प्राप्त नहीं होता ,उसको हासिल करने के लिए सावधानी से प्रयास करने पड़ते है और कई  बार तो हाथ से खून भी छलक आता है . परन्तु उस गुलाब  को पा कर हम अपने दर्द को भूल जाते है.ठीक उसी तरह दुःख के दिनों के बाद हासिल सुख , मेहनत से हासिल किया गया फल,  सच में विलक्षण और अद्भुत होता है.  दुःख में हम कई बार भगवन को कोसते भी है और कई बार उनको मनाने के लिए मंदिर मस्जिद के फेरे भी लगते है . मगर सच तो ये है की हमारी ही कुछ भूलों की परिणिति दुर्दिनो के रूप में हमारे समक्ष होती है . बहुत कम बार ऐसा होता है की किसी घटना का पूरा दोष हम ईश्वर या तकदीर के मत्थे मढ़ सके.परन्तु ये अवश्य सच है कि  जिस प्रकार हमारे समक्ष विपरीत परिस्थितियां  आ खड़ी होती है , उसी प्रकार अनुकूल समय नहीं आता.. वो तो धीरे- धीरे ही आता है . इसका भी एक कारण है यदि अच्छा और बुरा समय यदि लगातार बदलता रहे तो... न ही हमें अच्छे समय की क़द्र होगी न ही बुरे समय में हम पूरे प्रयास करेंगे .....और अंतिम महत्वपूर्ण बात की... जीवन में सिर्फ अच्छा ही समय निकाला तो जीवन का आनंद कहाँ ??? दुःख हमें स्वत्व का अनुभव करते है और बेशक ईश्वर के अधिक करीब भी दुःख ही ले जाते हैं .. तो दुःख अच्छे हैं ना .......!!!

धुंधली सी पहचान मेरी.....

वैसे तो मेरा परिचय कुछ भी नहीं है मेरे नाम के सिवा ....., परन्तु अक्सर मेरा नाम भी सामने वाले को चक्कर में डाल देता है कि आखिर मैं  हूँ कौन ? किस जाति, किस प्रदेश से सम्बन्ध रखती  हूँ ? मेरा नाम जान कर कोई मुझे दक्षिण भारतीय समझना चाहे इससे पहले ही मेरी भाषा और मेरा रंग उसके विरोध में अपना  मत दे देता है . तब कोई मुझे बंगाली , मराठी या कुछ और समझता है .. कुल मिला कर मैं भारतीय एकता की मिसाल बन जाती हूँ ....पर अंत तक कोई ये नहीं समझ पाता कि मैं राजस्थान की एक दुर्लभ ऐतिहासिक जाति से सम्बन्ध  रखती हूँ ..राजस्थान के जैसलमेर के शाही घराने के राव थे मेरे नानाजी . अब राव शब्द से तात्पर्य है सरल शब्दों में    " भाट"     ..    
                                   भाटो में भी कई उपजातियां होती है ,मसलन -मांग कर खाने वाले भाट, खाना बदोश भाट तथा सामान्य हिन्दू जातियों के भाट तथा जमींदार वर्ग  . .ये जाति अन्य पिछड़ा वर्ग  में घोषित कि गई  है, मगर मज़े की बात ये है कि  जो भाट अनुसूचित जाति के भाट होते है वो स्वयं भी अनुसूचित जाति में स्वयं को दर्ज करवाने में शर्म नहीं महसूस करते  हैं ,  और जो जमींदार वर्ग या सामान्य वर्ग के भाट होते है वो स्वयं को सवर्ण घोषित करते हैं . आम हिन्दू जातियों के भाट अपने यजमान के पूरे ख़ानदान का वंशावली का ब्यौरा अपने पास रखते है जिनकी अपनी एक लिपि होती है .जब भी इनके यजमानो के यहाँ कोई उत्सव होता है तो इन भाटो को मनुहार पूर्वक बुलाया जाता है , तथा विरदावली बंचवाई जाती है  . और यथा संभव दक्षिणा देकर उन्हें विदा किया जाता है .एक भाट की विरदावली यह साबित करती है कि उसके यजमान की सात पीढियां दोष रहित है या दोष सहित हैं .और वर - कन्या के विवाह में यह अहम्  होता है . ताकि एक निर्दोष कुल में रिश्ता किया जा सके .कई बार जायदाद के बंटवारे से सम्बन्धत विवाद में कोर्ट को भी भाटो की शरण लेनी पड़ती है ताकि जायदाद के असली मालिक की पहचान हो सके . इसके लिए उसकी विरदावली या बही के लेख को सबूत  के तौर  पर पेश भी किया जाता है.क्योकि ये पीढ़ी दर पीढ़ी चली रही होती है.. परन्तु अब ये विलुप्त होने के कगार पर है. दूर दराज के गाँव ढाणियों के अलावा ये प्रथा अब देखने को नहीं मिलती...हाँ !! गाँव में आज भी भाटो का सम्मान होता है..
मुझे याद है मेरे नानाजी की बही या बिरदावाली .. जिसे वो बहुत सहेज कर रखते थे . उस  गुप्त  लिपि को उनके ख़ानदान के लड़के ही समझ सकते थे , और वैसे भी वो किसी और की समझ से बाहर की चीज़ थी  .कभी सोना चाँदी, रत्नाभूषण ,कभी हाथी- घोड़े तो कभी बहुमूल्य वस्त्रादि  के बेशकीमती तोहफे उन्हें भेंट किये जाते थे . पर धीरे धीरे सब ख़त्म हो गया .. नानाजी भी नहीं रहे और वो हाथी घोड़े भी .. रहे मेरे ६  मामाजी  तो उन्होंने इस काम की बजाय  अपने अपने बिज़नस या डिफेंस में नौकरी को ज्यादा तजरीह दी .
.........और अब मुझे वो हाथी घोड़े के निशान वाली लाल बही कहती है..... राजा -महाराजाओ ने तुम्हे "राव " के  जिस ख़िताब  से नवाज़ा, उसे तुम  धीरे धीरे खो चुकी हो ...... तुम्हारी  पहचान  आज कुछ नहीं है ...आज न राजा महाराजा है ,ना रजवाड़े हैं .और ना ही रावों की पहचान ही स्पष्ट है .सब  कु छ धुंधला है .