रविवार, 3 मार्च 2024

ग्रेट ब्रिटेन के पूर्ववर्ती सामंतकालीन इतिहास में भाटों का वर्णन

 जैसा कि मैं बहुत समय से कहती आ रही हूँ कि विश्व में भाट/ राव /ब्रह्मभट/ बारोट बहुत व्यापक स्तर पर फैले हुए हैं। यहाँ तक कि ग्रेट ब्रिटेन के पूर्ववर्ती सामंतकालीन इतिहास में भी भाटों का वर्णन मिलता है और समाज में उनकी अत्यंत सम्मनजनक स्थिति दर्शाते हैं। इस बारे में मैंने कुछ शोध किया है और अधिक गहन अध्ययन की आवश्यकता है। मुझे इस संदर्भ में किंचित मात्र भी संदेह नहीं कि विश्व की हर एक समृद्ध सभ्यता में भाटों का विशिष्ट स्थान था। आज अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहे भाटों का सम्मान श्री राम के समय से पूर्व भी था और पृथ्वीराज चौहान के समय में भी था , मराठा गौरव बाजीराव भल्लाल भाट ही थे।

ग्रेट ब्रिटेन के पूर्ववर्ती सामंतकालीन इतिहास में भी भाटों का वर्णन मिलता है और समाज में उनकी अत्यंत सम्मनजनक स्थिति दर्शाते हैं।इस सन्दर्भ में मैंने एक शोध किया है जो यहाँ रख रही हूँ। अंग्रेजी साहित्य में एक शब्द आता है बार्ड, जो हमारे भाट शब्द से मिलता जुलता है मैंने इसी पर जानकारी हासिल की है जो तथ्यात्मकरूप से प्रस्तुत कर रही हूँ ----
बार्ड" शब्द का प्रयोग पूरे इतिहास में कई तरह से किया गया है. वे पुजारी, विद्वान, भाट, शाही सलाहकार और द्रष्टा थे। ओडिसी में, हमें कम से कम दो बार्ड और एक हेराल्ड के बारे में बताया गया है: फेमियस, डेमोडोकस और मेडॉन कवि और लोक जो संभवतः "सच्चे" भाट थे, जीवित ग्रीक और रोमन स्रोतों में कई स्थानों पर पाए जाते हैं।। वे आयरलैंड और गॉल में भी फले-फूले, लेकिन उनके उन्नत कॉलेज ब्रिटेन में थे। गया।डियोडोरस सिकुलस ने "भाटों के प्रति महान श्रद्धा का उल्लेख किया है". यह भी नोट किया गया है कि "भाटों की कविता, उनकी मौखिक कहानी और लोकप्रियकरण के माध्यम से, वेल्श के आर्थर ने आकार लिया।"
एक प्राचीन ब्रिटिश कानून में गुलामी से मुक्त होने के लिए रोजगार के तीन वर्ग ("पेशे") रखे गए थे: लोहार, भाषाओं के विद्वान और भाट। जब एक बार कोई बार्ड एक गीत लिख देता था, तो फिर वो गुलाम नहीं रहता था।
भाटों के लिए मौखिक परंपरा हमेशा से महत्वपूर्ण रही है, यहाँ तक कहा जाता है कि शक्तिशाली भाट केवल अपने प्रदर्शन की कड़कड़ाती गर्मी के माध्यम से किसी मानव लक्ष्य पर चुनिंदा तरीके से छाले डालने में सक्षम होते हैं। 100 ईसा पूर्व के आसपास या उसके तुरंत बाद गॉल के सेल्ट्स के बीच मामलों की आश्चर्यजनक रूप से समान स्थिति [पॉसिडोनियस, एथेनियस, स्ट्रैबो, डियोडोरस सिकुलस, गयुस जूलियस सीज़र] के माध्यम से हमारे पास पहुंची है। यहां हम ऐसे भाटों, भविष्यवक्ताओं और ड्र्यूड दार्शनिकों को पाते हैं जिनके साथ शत्रु के कटे हुए सिर एक ट्रॉफी के रूप में रहते थे।
बार्ड का एक प्रमुख कार्य वंशावली रिकॉर्ड का रखरखाव और अतीत के कालक्रम को निर्धारित करने में और जन्म और मृत्यु के अल्प औपचारिक लिखित रिकॉर्ड के सुदृढीकरण के रूप में विशेष रूप से महत्वपूर्ण था। चाहे औपचारिक हों या गाई गई गाथा में, कैलेंडर के संदर्भ में तारीखें रिकॉर्ड करना उनके लिए आम बात थी . न्यायाधीश, तटस्थ पक्ष, मध्यस्थ, कानून-पालक ,व्यंग्यकार, गाथा-गायक, कवि, संगीतकार, हेराल्ड (विशेषकर कुछ संस्कृतियों में "राजा की आवाज", या राजदूत के अर्थ में), कहानी -टेलर, संगीत रचयिता, पहेलियां बनाने वाला, दृष्टांत बताने वाला, इतिहासकार, औषधि विशेषज्ञ/चिकित्सक, समाचारकर्ता, समाचार टिप्पणीकार, संदेशवाहक, शिक्षक, छात्र, पुजारी, योद्धा, भाषाविद्, शिल्पकार, रिकॉर्ड-कीपर, वंशावलीविद्, सैन्य स्काउट, जासूस , वगैरह। बार्ड का एक विशेष कर्तव्य "रिवाज को बनाए रखना" था: प्रथागत कानून के आधार पर याद रखना, व्याख्या करना और कभी-कभी निर्णय भी देना। उत्तराधिकार की रेखाओं को बनाए रखने के महत्व के कारण वंशावली को बनाए रखना असाधारण रूप से महत्वपूर्ण था, विशेष रूप से जनजातियों और कुलों के लिए, जहां राजनीतिक और धार्मिक शक्ति दोनों वंशानुगत अधिकारों द्वारा प्रबलित मामले थे।
एक महान बार्ड की आय वास्तव में आश्चर्यजनक हो सकती थी । एक सौ घोड़े, लबादे और कंगन, साथ में 50 ब्रोच "और एक शानदार तलवार" पेंग्वर्न में सिनान गारविन द्वारा तालीसिन को दिए गए थे। मवेशी, घास, तेल और यहां तक कि भूदास भी .
सेल्टिक संस्कृतियों में, बार्ड/फ़िलिध/ओलावे का उल्लंघन नहीं किया जा सकता था। वह कहीं भी यात्रा कर सकते थे, कुछ भी कह सकते थे और जब चाहें, जहां चाहें प्रदर्शन कर सकते थे। इसका कारण, निश्चित रूप से, यह था कि वह समाचारों का वाहक और संदेशों का वाहक था, और, अगर उसे नुकसान होता, तो किसी को पता नहीं चलता कि अगली पहाड़ी पर क्या हो रहा था। इसके अलावा, उन्होंने देश के रीति-रिवाजों को कंठस्थ छंदों के रूप में रखा...प्रथागत (सामान्य) कानून के मामलों में उनसे परामर्श लिया जा सकता था। इसलिए, वह सांस्कृतिक जानकारी, समाचार और मनोरंजन का काफी मूल्यवान भंडार था।एक सच्चे बार्ड को निम्नलिखित बातें अवश्य जाननी चाहिए: संगीत (और किसी काल वाद्य यंत्र को बजाना, अधिमानतः हार्प), विवादों में मध्यस्थ के रूप में कार्य करना, और यहां तक कि कभी-कभी न्यायाधीश/मध्यस्थ के रूप में भी कार्य करनाकानूनों को सुनाने के लिए (विशेष रूप से प्राचीन दिनों में, एक "पूर्ण" बार्ड बनने के लिए कविता और अन्य सामग्री की हजारों पंक्तियों की सही याददाश्त की आवश्यकता होती थी, कम से कम सेल्टिक-संबंधित संस्कृतियों में। कविता (मूल और अन्य लोगों का), गीत (मूल और अन्य लोगों का), उसके साम्राज्य का इतिहास, कानून और रीति-रिवाज और एससीए का, सांसारिक मध्ययुगीन इतिहास, कानून और रीति-रिवाज का उतना ज्ञान जितना वे संभवतः सीख सकते हैं, और कम से कम भाषाविज्ञान और वर्णमाला/साइफ़र्स का बहुत ही बुनियादी ज्ञान।बार्ड सिर्फ गाने नहीं गाते! वे कविताएँ, कहानियाँ पढ़ते और लिखते हैं, मिथक बताते हैं ,)गीत, कहानी और वाद्य यंत्र (यहां तक कि अन्य कलाओं के साथ) के साथ मनोरंजन करनासमाचार को दूर-दराज के स्थानों से प्राप्त होने पर प्रसारित करना, और बार्ड के दर्शकों को यह समझने में मदद करना कि उस समाचार का उनके लिए व्यक्तिगत रूप से क्या अर्थ हो सकता है ?
निकोलाई टॉल्स्टॉय टिप्पणी करते हैं: "ईसाई धर्म की स्थापना के साथ, भाटों की भूमिका बहुत कम हो गई थी।" पहले, नए राजा या अन्य महान मुखिया की वंशावली के बारे में बताने में उसके उत्तराधिकारियों के बारे में भविष्यवाणी शामिल होती थी। अन्यथा टॉल्स्टॉय के स्रोत अलग-अलग समय और स्थानों पर ड्र्यूड्स, "एक हाईलैंड सेनेची", और "ओरेटर" के उत्थान के अनुष्ठान के इस हिस्से का श्रेय देते हैं। जैसे ही चर्च के लोगों ने इन संस्कारों के पवित्र हिस्सों को अपने कब्जे में ले लिया, भविष्य के उत्तराधिकार के संबंध में भविष्यवाणी की परंपरा को छोड़ दिया गया।
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बुधवार, 30 जुलाई 2014

एक मुट्ठी इंतज़ार ……


एक हफ्ता....  हाँ एक हफ्ता ही तो बाकी  है अब.… नवम्बर से जिस घड़ी  का इंतज़ार मैं इतनी शिद्दत से कर रही थी , उसमे सिर्फ एक हफ्ते का समय ही बाकी रहा है। सिर्फ मैं और मेरा परमात्मा ही जानता है कि ये लम्बा समय मैंने किस तरह निकाला है।  न जाने क्यों मेरे उत्साह का प्याला छलक छलक जाता है , कहते है , ज़्यादा उत्साहित होना अच्छा नहीं मगर ये मेरे बस में नहीं कि मैं खुद को कल्पनाए करने से रोक लूँ।  पिछली बार मैंने हर पल को इस कदर नहीं जिया था , इस बार हर लम्हा हर पल बड़े ही ख़ुलूस से जी रही हूँ , चाहे वो दर्द का हो या उम्मीदों का। 
ये सारा आयोजन तो वैसे माही के लिया ही हो रहा है , क्योकि हम  तो माही  के साथ ही बेहद खुश थे, ज़िन्दगी में सम्पूर्णता थी, मगर हमारी मासूम सी नन्ही  माही अपनी ज़िन्दगी में अधूरापन महसूस कर रही थी जिसके चलते हमने ये कदम उठाया।  पर अब  लगता है  कि अनजाने में ही  मेरी  मासूम बच्ची ने मुझे ज़िन्दगी के एक नितांत खूबसूरत अहसास को नए ढंग से   जीने का मौका दे डाला।
हल्की हल्की आहट करने वाली ज़िन्दगी आज  अपनी मुट्ठियाँ भींचे , ताल ठोंक कर इस दुनिया में आने की तैयारी  कर चुकी है , और बस अगले बुधवार तक इंतज़ार करना है, देखते हैं कि किस्मत अगले हफ्ते क्या दिखाती है ?
जो भी हो ये तय है कि कुदरत का बेहतरीन तोहफा मेरी बाँहों में होगा।
नवम्बर से अगस्त तक का सफर कुछ कम  पीड़ा दायक नहीं था मेरे लिए , खास  कर के तब जब माही की ज़िम्मेदारी भी मुझ पर ही हो, मगर ईश्वर ने मुझे शक्ति दी अपनी  ज़िम्मेदारियाँ पूरी करने की।
 ये ताक़त कुदरत   ने सिर्फ औरत को ही दी  है कि वो अपने में एक नई  ज़िन्दगी को सहेज सकती है , उसे   आकर दे सकती  है।  सृजन की शक्ति यूँ ही नहीं  मिलती , दर्द सृजन का मुख्य आधार है , धरती  का सीना चीर कर जब नन्हा सा पौधा  इस दुनिया में अपना अस्तित्व दर्ज  कराता है तो धरती भी तो दर्द का अनुभव करती है। और ये दर्द सिर्फ तब नहीं होता जब वो पौधा बाहर आता है बल्कि तब से ही शुरू हो जाता है जब एक बीज के पौधा बनने की प्रक्रिया धरती की गोद  में होती है.

जीती हूँ , मरती हूँ , हर लम्हा सहती हूँ,
आशा के धागों से पल पल पिरोती हूँ ,
जीवन के पन्नो को चाहत के रंगो  से रंगती ही जाती हूँ ,
 जाने अनजाने ही खुद पे इतराती हूँ। …
 

शनिवार, 4 जनवरी 2014

शिव जी के नाम खुला पत्र ------

23 June 2013

ऐसा हो नहीं सकता कि तुम्हारा वजूद नही है . हो तो ज़रूर कहीं ना कहीं ,मगर पता नहीं कहाँ ? हां एक बात तो अब तय है की मंदिरों और मस्जिदों में तो तुम नहीं बिलकुल नहीं रहते हो . क्योंकि जहाँ एक और मस्जिदों में लोगो की जिन्दगियों को मशीनगनों से भून दिया जाता है , वहीँ दूसरी और मंदिरों में प्रकृति अपना कोप दिखाती है और जनसंहार पर ही उतारू हो जाती है .ठीक वैसे ही जैसे जोधपुर में चामुंडा मत के मंदिर में हुआ था और अब केदारनाथ में उससे भी वृहद रूप में .
शायद तुमको भी हम इंसानों की तरह भूख लगती है ,कुछ अलग तरह की भूख ..... इंसानी जिंदगियों को खाने की भूख ....अपनी ही बनाई गयी कृतियों का संहार करने की "देव-पिपासा"......
वरना भारतीय संस्कृति में तो घर आये शरणागत के लिए सर्वस्व तक त्याग देने कि प्रथा है .... .और फिर तुम तो देव हो , देवों के देव -महादेव . सृष्टि की रक्षा हेतु हलाहल विष तक का पान कर लिया था तुमने तो ....! तब फिर अपनी शरण में आये श्रद्धा के पुतलों की ऐसी दशा तुम कैसे कर सकते हो ?
हर कोई तुमसे आस लगा कर कुछ न कुछ माँगने ही आया होगा , मगर तुमने उन्हें क्या दिया ......?? मौत ,अकाल मौत ....वो भी कदर बुरी और अमानवीय ...! तुमने तो हिटलर और मुसोलिनो को भी मात दे दी .
"सत्यम -शिवम्- सुन्दरम " यही कहा जाता है ना .मगर , कोई तुम्हारे द्वार पर कुछ आस लगा कर तुम्हारी शरण में आये , तुमसे कुछ उम्मीदें लगे, अंत समय तक तुमसे गुहार लगाए खुद को बचाने की .. और तुम उसे इस कदर नोच दो ,क्षत-विक्षत कर दो की उसे कफ़न का एक टुकड़ा तक नसीब न हो ...तो बताओ भला इसमें सत्य -शिव और सुन्दर कहाँ है ? ये हो वही बात हुई की बच्चे को उसका पिता हवा में उछाले और अपने पर विश्वास करने वाले खिलखिलाते हंसते हवा में उछल कर नीचे आते बच्चे को नीचे गिर कर मर जाने दे . वो बच्चा अपने अंत तक नहीं समझ पेग की उसका पिता उसके साथ ऐसी घात भी कर सकता है .
कण कण में बसने वाले भगवन , तुम तो उस बालक से भी ज्यादा नादान हो जो अपने खेलने के लिए मिटटी का घरोंदा बनता है और जी भर जाने पर पैर से लात मार कर उसे तोड़ डालता है .
जन जन की पीड़ को अपना समझने वाले भगवान , कहाँ हो तुम ? करुणा के सागर कहलाते हो न तुम ..क्या उस करुणा को केदारनाथ में प्रलय में बहा डाला ? कम से कम अपने नाम की तो लाज रखते ...! ऐसा भी क्या गुस्सा , ऐसा भी क्या आवेश ???
क्या फिर से किसी दक्ष ने तुम्हारी सती को आत्मदाह करने को मजबूर किया है जो यूं इस तरह अपना रौद्र रूप अपने ही भक्तों को दिखा रहे हो ?
मैं जानती हूँ कि तुम सर्वशक्तिमान हो , और मुझे तुमसे प्रश्न करने का कोई हक़ भी नहीं है , और अगर मैंने ढीठ बन कर तुमसे पूछ भी लिया तो तुम कौनसा मुझे उत्तर देने वाले हो ??
तुम मुझसे भी बड़े ढीठ बन कर चुप्पी साध कर बैठे ही रहोगे ....-------June 23 , 2013

मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

पिछले बरस की यादें

ज़िन्दगी के  में गुज़र जाते हैं जो मक़ाम , वो फिर नहीं आते ...वो फिर नहीं आते।
                            2012  ने बहुत सदमे दिए है. कई कलाकार , जो हमारी ज़िन्दगी पर गहरी छाप रखते थे , एक -एक कर  के कुदरत ने हमसे उन्हें  छीन लिया .  वो चले गए , निश्चित ही बहुत तकलीफ देह बात है, पर उससे ज्यादा गम इस बात का  है कि जिस रफ़्तार से वो गए है, उस रफ़्तार से उनकी जगह को भरने कोई कलाकार नहीं आया। कहते है कि  समंदर से अगर पानी निकालो तो आस पास का पानी उसकी जगह लेने चला आता है। मगर बॉलीवुड के अथाह समंदर में से एक बूँद भी ऐसी नहीं वो दारा सिंह या राजेश खन्ना की  जगह ले सके। 
क्या ये समझ लिया जाए कि आज की कलाकार पीढ़ी बंजर हो गयी है,सिर्फ रीमेक गाने गा कर या फिल्मो पुनर्प्रस्तुतीकरण  ही उनकी उपलब्धि है। कहीं  कोई रचनात्मकता नहीं , कहीं कोई सृजन  नहीं , क्या यही ।

ना भूली ना बिसरी

एक अरसे  बाद इस ब्लॉग कि सुध ली है मैंने . बात तो बड़ी बेहूदा होगी  अगर मैं ये  कहूं कि समय ही नहीं निकल  पाई . इसका अर्थ तो ये होगा कि पिछले एक डेढ़ साल से मैं खाती पीती और सोती रही हूँ , एक यन्त्र  की  भांति काम करती रही हूँ , बिना किसी सोच के साथ , भावना-विहीन , विचार शून्य . मगर ये सच नहीं है . सच तो ये है कि इसके पीछे सिर्फ और सिर्फ मेरी लापरवाही थी . इंसान आक्षेपों  से बचने के लिए तरह तरह के बहाने बनता है .मगर  ये ब्लॉग मेरे दिल कि आवाज़ है और दिल कि आवाज़ को मैं नहीं झुठला सकती हूँ . 

बुधवार, 11 जुलाई 2012

,हिन्दू धर्म विश्व का एक मात्र इकलौता धर्म है , जिसने कभी अपने अनुयायी बनाने के प्रयास नहीं किये. मालूम है क्यूँ ? वो इसलिए कि  कुआँ कभी प्यासे के पास नहीं जाता है, प्यासा खुद ही कुँए के पास आता है . जिसे जीवन दर्शन की प्यास है वो खुद इसके करीब आता है अब वो चाहे पौप स्टार मडोना ही क्यों न हो ........

ab ye bhi

बेशर्मी की भी हद होती है ! चिदंबरम अब ये कहता है कि देश के माध्यम वर्ग को  आइसक्रीम के 20 रूपये  देने में तकलीफ नहीं होती और चावल के एक रूपये बढ़ने पर  हंगामा खड़ा करते है। उस गैर ज़िम्मेदार इन्सान को कोई ये बताये कि हिन्दुस्तान जैसे देश में आइसक्रीम जैसी चीज़ रोते बच्चे को चुप करवाने के लिए दिलवाई जाती है। कोई भी हिन्दुस्तानी आइसक्रीम से पेट नहीं भरता अन्न से भरता है . बल्कि ये चिदंबरम महाशय भी चावल ही से अपना पेट भरते हैं वो भी रोजाना.! आइसक्रीम हमारे जीवन में विलासिता का प्रतीक  है, वो रोज़ नहीं कभी कभी यदा -कदा खाई जाती है। उसे त्यागा जा सकता है..... मगर चावल को नहीं .. क्या चावल जैसी अनिवार्यता के बढ़ाते दामों का विरोध करना भी अनुचित है  ? मगर इस सच्चाई को वो क्या समझे .जो बढ़ी हुई तनख्वाह , और तरह तरह के भत्तो के सहारे ऐश कर रहा हो? परमात्मा इन परजीवियों को सद्बुद्धि दे ....!!!!!